बात जब घडी ख़रीदने की आती है, तो सबसे पहले दिमाग में नाम आता है टाइटन,आज भले ही मार्केट में घड़ी की कई कंपनिया हों | लेकिन टाइटन घड़ी का आज भी बोल बाला है | और लोगों की पहली पसंद हैं | एक ऐसा समय भी था जब किसी ख़ास मौके पर किसी को याद के तौर पर गिफ्ट देना होता तो पहली पसंद घड़ी ही होती थी, चाहे फिर वह शादी हो या कर्मचारी का रिटायरमेंट |

कैसे हुई टाइटन घड़ी की शुरुआत- एक समय था जब टाटा ग्रुप ने तमिलनाडु सरकार से ये वादा किया था कि हम आपके स्टेट में लोगों को रोजगार का अवसर देंगे, इसी वादे के तहत 1984 में टाटा इंडस्ट्री और तमिलनाडु सरकार ने साथ मिलकर में टाइटन घड़ी की शुरुआत की |हालांकि 1984 से पहले बाजार में एचएमटी घड़ियों का बोलबाला था उस समय यह कपंनी मशीन आधारित एनालॉग घड़ियां बनाती थी, लेकिन जैसे–जैसे समय बीता इन घड़ियों का क्रेज कम होने लगा | ऐसे में विदेशों से लाई जाने वाली घड़िया लोगों को अपने तरफ आकर्षित करने लगीं थीं, जिस वजह से एचएमटी द्वारा बनाई जाने वाली सामान्य घड़ियों का क्रेज बाजार से कम होने लगा था | वंही दूसरी तरफ टाटा ग्रुप के सेन्ट्रल मैनेजमेंट में काम करने वाले जेरेक्स देसाई टाटा के लिए एक नए बिजनेस की तलाश में थे ऐसे में ये बिल्कुल सही मौका था, जब उन्होंने देखा की लोगों को विदेशी घड़िया खूब पसंद आ रहीं है, तब उनको ये आइडिया आया कि क्यों न ऐसी ही घड़िया भारत में बनाई जाए जो की विदेशी घड़ियों से मुकाबला कर सकें |


नहीं मिल रहे थे कुशल कारीगर - जेरेक्स देसाई टाटा ग्रुप से दो दशकों से जुड़े थे और वह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र रह चुके थे | उनको टाटा में काम करने का बहुत अच्छा अनुभव था | देसाई ने टाइटन कंपनी के लिए तमिलनाडु का एक छोटा सा गावं चुना, जिसका नाम होसर था, और यह गावं चुनने की ख़ास वजह ये थी कि यह गावं एचएमटी कंपनी से महज 40 किलोमीटर पर ही था | देसाई ने जब कंपनी को शुरू करने के लिए एक रिसर्च टीम तैयार की | इस टीम का काम था ग्राउंड वर्क और कुशल कारीगर की तलाश का, लेकिन टीम ने ग्राउंड वर्क तो अपने हिसाब से तैयार कर लिया लेकिन अच्छे कारीगर नहीं मिल रहें थे ऐसे में टीम ने देसाई को रिपोर्ट किया | ऐसे में देसाई ने कुशल कारीगरों की तलाश शुरू की, इसके लिए वह स्कूल और कॉलेजो में गए जंहा 17 साल या उससे अधिक उम्र के बच्चों को लिखित परीक्षा के आधार पर सेलेक्ट किया | और उसके बाद उनको कठिन ट्रेनिग दी गई,और इस तरह से कुशल कारीगर की तलाश पूरी हो गई |

1987 में आई टाइटन की घड़िया - दिसंबर 1987 को टाइटन ने बेंगलुरु के सफीना प्लाज़ा में अपना पहला शोरूम खोला | इस स्टोर में कंपनी ने नए नए माँडल पेश किए | जो ग्राहक मंहगी घड़िया नहीं खरीद सकते थे उनके लिए कुछ घड़ियों की कीमत 350 से 900 की कीमत रखी गई थी, जो गिफ्ट देने के लिए काफी किफ़ायती थी | वहीँ आज टाइटन अपने ग्राहकों के लिए सोने के पट्टे, सोने की परत चढ़ी डायल, चमड़े और स्टील और कंगन जैसे आकार वाली घड़िया पेश कर रहा है | जो ग्राहकों खूब पसंद कर रहें है |


आज टाइटन घड़ी, भारत में घड़ी सबसे बड़ा ब्रांड बन गया है। जो शुरुआत से ही ग्राहकों का दिल जीतने में कामयाब रहा, जिसने सालों से अपने क्वालिटी को बनाये रखा है। टाइटन हर वर्ग और उम्र के लोगों का ख्याल रखते हुए, समय के साथ ही साथ हमेशा नए डिजाइन लेकर मार्किट में आती है। टाइटन को सिर्फ घरेलू बाजार में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजार स्तर पर भी नए डिजाइन और नई खोज के लिए जाना जाता है। वह फ़्रेंच, जापानी और स्विस घड़ियों जैसे कई अंतरराष्ट्रीय घड़ी निर्माताओं का अनुकरण करते हुए घरेलू मार्केट के लिए घड़ियों के नए डिजाइन तैयार करते रहते हैं। उदारीकरण के बाद इस रणनीति को और अधिक आक्रामक तरीके से अपनाया गया, क्योंकि एफसीयूके, फॉसिल और टॉमी हिलफिगर जैसी कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियां घरेलू बाजार में अपने पैर जमाने के लिए खड़ी थीं।

टाइटन के है कई, अन्य ब्रांड – देसाई कहतें है कि लोगों की नजर में घड़ी खरीदना वन टाइम इन्वेस्टमेंट है | इसलिए हमने साल दर साल घड़ियों के नए डिज़ाइन बनाने में समय और पैसे लगाते गए | हमने प्रचार-प्रसार के लिए अख़बार, रेडियो टेलीवजन का सहारा लिया गया, जिससे ग्राहकों देखने लिए स्टोर न जाना पड़े वह अपनी पंसद को पहले चुन सके और स्टोर जाकर खरीद सकें | वह कहतें हैं कि हमने मल्टीब्रांड रिटेलिंग के सहयोग से सोनाटा,तनिष्क, फास्ट ट्रैक, टाइटन आई प्लस में बांटकर ब्रांड को और मजबूत बनाया है |

आज टाइटन का16 मिलियन घड़ियों का प्रोडक्शन है, और वार्षिक टर्नओवर 4000 करोड़ का है |