जानिए उस महिला के बारें में जिनकी विचारधारा से 10 लाख बच्चों को, बाल मजदूरी से बचाया
ऐसा कहा जाता है कि बच्चे हमारे, और देश के भविष्य होते है | बाल मजदूरी ने आज दुनिया के हर कोनें में बच्चों को जकड रखा है
ऐसा कहा जाता है कि बच्चे हमारे देश के भविष्य होते है | बाल मजदूरी ने आज दुनिया के हर कोनें में बच्चों को जकड के रखा है | आज अपने देश की बात करें, तो अक्सर वही बच्चे मजदूरी करते दिखते है, जिनके सर पर अपने घर की जिम्मेदारी होती है, या अज्ञानता के कारण अपने बचपन को मजदूरी के पेशे में झोंक दें रहें है | आन्ध्र प्रदेश की रहने वाली है शांता सिन्हा जिन्होंने बच्चों के भविष्य सँवारने में अपना पूरा जीवन लगा दिया | बच्चों के अधिकार के लिए लड़ते हुए शांता जी ने लाखों बच्चों को बाल मजदूरी से बचाया है | शांता गाँधी वादी विचार धारा से प्रेरित थी | इनके इस नेक कार्य के लिए भारत सरकार द्वारा 'पद्म श्री' पुरस्कार से नवाजा गया है |
शांता सिन्हा के बारे में - शांता सिन्हा आन्ध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले की रहने वाली है, इनका जन्म 7 जनवरी 1950 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था | ये 7 भाइयों में अकेली बहन थी | इनके परिवार ने ये तय कर के रखा था, कि बच्चों का पालन पोषण बहुत ज्यादा सुविधाओं के साथ न हो | शांता की शुरुआती पढाई नेल्लोर से हुई, उसके बाद वे पीजी की डिग्री के लिए हैदराबाद चलीं गई | इन्होने उस्मानिया विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में पीजी की डिग्री प्राप्त कर ली | इसके बाद उनको पीएचडी करना था, जिसके लिए वो दिल्ली चली गई | शांता ने अपने विषय के रूप में 'आंध्र प्रदेश के नक्सली आंदोलन' को चुना | इनको जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (J.N.U) में पीएचडी करने का मौका मिला | पीएचडी करने के दौरान इन्होने अपने एक सहपाठी से शादी कर लिया | अपने एक इन्टरव्यू में इन्होने बताया कि मेरी पहली बेटी जब पैदा हुई तब मेरी पीएचडी की पढाई चल रही थी, जिसकी वजह से मुझे अपनी बेटी को माता-पिता के पास छोड़ना पड़ा | जिससे की मेरी पढाई जल्द पूरी हो सके | उन्होंने ने बताया कि हर माँ के लिए ये बहुत कठिन समय होता है, जब उसका बच्चा उनसे दूर रहे, लेकिन कर भी क्या सकतीं थी बात पढाई की थी | शांता को पढने का जूनून था | अपनी पढाई पूरी करने के बाद शांता वापस हैदराबाद लौट आई | कुछ दिन बाद उनकी नियुक्ति प्रोफेसर के तौर पर हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में हुई | उनका जीवन अब शांति से बीत रहा था, कि अचानक से दुखों का पहाड़ टूट पड़ा ! और उनके पति की मस्तिष्क रक्तस्राव के कारण मौत हो गई | इस घटना के कारण उनके ऊपर जिम्मेदारीयों का बोझ आ गया | इसके बाद इनके माता-पिता ने इनका हौसला बढ़ाया और पूरा साथ दिया | इनको भारत की ग्रामीण राजनीति पर एक कोर्स करना था, जिसके लिए इन्होने सबसे पहले हैदराबाद के आस-पास के गावों में जाना शुरू कर दिया | वे अपने इस कोर्स को विश्वविद्यालय परियोजना का हिस्सा बनाना चाहती थी | उसी समय भारत सरकार के द्वारा ग्रामीण श्रमिकों के लिए 'श्रमिक शिक्षा कार्यक्रम' शुरू हुआ था, इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने के लिए शांता ने आवेदन किया |
कैसे आया विचार, बाल मजदूरी से मुक्त कराने का - शांता अब अपने इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए हर रोज गावों में जाने लगीं | वे गावं में जाकर बंधुआ मजदूरों से मिली, दलित समुदाय के लोगों की स्थिति को देखकर उनकों बहुत दुःख हुआ | उनके मन में ये विचार आया, कि इनको इस बंधन से मुक्त कराना है |
कार्य की शुरुआत - शांता जी ने जब ये संकल्प ले लिया कि अब इन लोगों को इस बंधन से मुक्त कराना है | उसके लिए उन्होंने हर संभव रास्ते की लताश करना शुरू किया उसी क्रम में उनको पता चला की इनका एक दोस्त इसी मुद्दे पर काम कर रहा है | इन्होने अपने दोस्त से मिलकर अपने विचारों को साझा किया और अपने दोस्त के किए गए काम को देखा समझा और मदद मांगी | वे अब गावं से ही पढ़ाने जाने लगी, उन्होंने गावं के लोगों को समझाना शुरू किया उनके अधिकारों के बारे में उनके बच्चों के भविष्य के बारे में धीरे-धीरे लोग इनसे जुड़ने लगे | वे श्रमिक विद्यापाठ के माध्यम से लोगो को जुटाना शुरू कर दिया | उन्होंने ये गणना शुरू कर दिया की ऐसे लोगों को कितना वेतन मिलता चाहिए, महिलाओं के लिए न्यूनतम मजदूरी क्या होनी चाहिए, इसके लिए सरकार से अनुबंध जारी करने के लिए अपील करना शुरु कर दिया | मजदूरी प्रबंध के लिए लोगों को श्रम अदालत ले जाने लगीं | देखते-देखते लोग इनसे जुड़ते गए और ये एक संघ का रूप ले लिया | उसी दौरान इनका श्रमिक विद्यापाठ में कार्यकाल ख़त्म हो गया |
ट्रस्ट की स्थापना - श्रमिक विद्यापीठ में कार्यकाल ख़त्म होने के बाद इन्होने अपने खुद का ट्रस्ट बनाया और उसका नाम "मममीदिपुङी वेंकटारागैया फाउंडेशन" रखा इस ट्रस्ट के माध्यम से उन हर गरीब बच्चों के लिए संकल्पित थी जो बाल मजदूरी में लिप्त थे | उनको ऐसा लगने लगा कि जो भी बच्चा स्कूल से बाहर है, वो मजदूर है | इसके लिए उन्होंने गावं में जाकर लोगों को जागरूक करना शुरू किया | बच्चों को इस बंधन से मुक्त कराने के बाद सबसे बड़ी समस्या उनके रहने और पढाई की थी, जिसके लिए इन्होने "ब्रिद कोर्स क्लास" की शुरूआत की | इस कोर्स में हर वो बच्चा शामिल था, जो बंधुआ मजदूरी से मुक्त हो चुका था | आज इस ट्रस्ट में 3000 स्कूली शिक्षक कार्य कर रहे हैं इनके ऊपर बच्चों की पढाई का जिम्मा है | 20 सालों में एमवीएफ के इस शिविर के माध्यम से कम से कम 60,000 छात्र मुख्यधारा की शिक्षा से जुड़ चुके है | इस ट्रस्ट ने विद्या दान समारोह का आयोजन किया, और उन तमाम कंपनियों से संपर्क किया जो इन लोगों को रोजगार दे सकते है | 2017 तक इस संस्था के लिए 86000 स्वयंसेवक कार्य कर रहें है | अब तक 1 मिलियन बच्चों को मजदूरी के दंश से बचाया है | इस ट्रस्ट के मदद से अब तक 168 गावं के बच्चों को बाल मजदूरी से मुक्त कराया है | शांता बताती है कि प्रत्येक बच्चे को स्कूल में लाना बहुत बड़ा संघर्ष था, कड़ी मेहनत से ये संभव हो पाया |
शांता को पुरस्कार और सम्मान – शांता के समर्पण और कड़ी मेहनत के लिए 1998 में भारत सरकार के द्वारा पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया | साथ ही शिक्षा के क्षेत्र और बाल मजदूरी से मुक्त कराने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार अल्बर्ट शंकर और मैग्सेसे पुरस्कार भी मिला। इनके इस कार्य के कारण सरकार पर बहुत प्रभाव पड़ा और भारतीय संसद ने दिसंबर 2005 में बाल अधिकार संरक्षण अधिनियम पारित किया| जिसके बाद बाल अधिकार संरक्षण (एनसीपीसीआर) के लिए राष्ट्रीय आयोग की स्थापना हुई, और प्रोफेसर शांता सिन्हा को इस आयोग की पहली अध्यक्ष की भूमिका निभाने के लिए चुना गया |
प्रोफेसर शांता सिन्हा ने समाज के एक ऐसे मुद्दे को उठाया जिसपर ज्यादातर लोग उदासीन ही रहते है | उन्होंने जो भविष्य बच्चों को दिया है, और समाज में बाल मजदूरी को रोका है उसके लिए अपना समाज इनका धन्यवाद करता है |