साइंस के अनुसार जैसे-जैसे समय बदलता गया| वैसे - वैसे इंसान के रहन-सहन शारीरिक बनावट और व्यवहार में बदलाव होता गया। लेकिन 21वीं सदी में हमें सबसे ज्यादा बदलाव देखने को मिला| 21वीं सदी के दौरान में दुनिया साइंस और टेक्नोलॉजी की वजह से अभूतपूर्व बदलाव देखने को मिला है| बावजूद इसके दुनिया में आज भी ऐसी कई पुरानी परंपराएं मौजूद हैं। जिसे जान कर हैरानी होती है| ऐसी ही एक पुरानी परंपरा आज भी मौजूद है न्यू गिनी(New Guinea) के जंगलों में रहने वाली अस्मत जनजाति के बीच।अस्मत जनजाति के लोगो के बीच आज भी ऐसी-ऐसी रस्में और मान्यताएं हैं कि लोग उनसे मिलने से डरते हैं|


अस्मत जनजाति आज भी मॉडर्न जिंदगी से अनजान हैं, और यह लोग वही सदियों पुरानी परंपरा के साथ जी रहें हैं। इस जनजाति के लोग आज भी अपनी पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं को मानते है| आज के समय में इन्हें बेहतरीन शिकारी के तौर पर जाना जाता है। इस जनजाति एक ऐसी परंपरा आज भी एक जिंदा है, जो इन्हें मशहूर तो बनाती है साथ ही डर भी पैदा करती है | यह परंपरा है कि अगर इस जनजाति के व्यक्ति का कोई दुश्मन होता है तो यह जनजाति अपने दुश्मनों को ना सिर्फ मारती है अपितु पका कर खा भी जाती है। जी हां! यह सच है। अस्मत जनजाति के लोग अपने दुश्मनों का शिकार कर उनका सिर काट देते हैं। उसके बाद सिर से खाल(Skinn) छील कर उसे पका कर खा जाते हैं। है न ये हैरानी की बात।

दुश्मनों का शिकार कर खा जातें है खोपड़ी-अस्मत जनजाति के लोग न्यू गिनी के जंगलों में रहते हैं। यह जनजाति अपनो दुश्मनों का शिकार कर उसका सिर काट लेते हैं| एक बार सिर कट जाने के बाद उसकी चमड़ी उतार उसे पका कर खा जाते हैं।


और बची हुई खोपड़ी का कई तरह से इस्तेमाल करतें हैं। कुछ लोग खोपड़ी के दो टुकड़े कर के उसे कटोरे के तौर पर खाने-पीने के लिए इस्तेमाल करतें है। वहीं कुछ लोग उस खोपड़ी को अपने घर में मैडल की तरह अपनी बहादुरी को दिखाने के लिए सजा कर रखते हैं। इसके अलावां कई लोग उस खोपड़ी को तकिया बना कर यूज करते हैं।

खोपड़ी खाने से पहले सजातें हैं- अस्मत जनजाति के लोगों का मानना है कि खोपड़ी एक पेड़ के फल जैसा है। यह पवित्र है। इसलिए खोपड़ी को पहले अच्छी तरह से साफ करतें हैं। उसके बाद उसे भट्ठी में सेंकतें है। जब खोपड़ी खाने लिए पक जाती हैं। उसके बाद उसे अच्छी तरह से सजातें है। उसके बाद पूरा परिवार मिल कर खा जाता है। इन लोगों के बीच यह परंपरा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में बढ़ती जा रही है। और आज 21वीं सदी में भी उनके बीच यह परंपरा जीवित है।